Bhagavad Gita Adhyay 1: Bhagwat Geeta Shlok in Hindi और Bhagwat Geeta PDF Download सुविधा

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भगवद गीता, जिसे अक्सर भारतीय महाकाव्य महाभारत के आध्यात्मिक सार के रूप में जाना जाता है, जीवन के गहन प्रश्नों के लिए एक कालातीत मार्गदर्शक के रूप में खड़ी है। इसके छंदों में ज्ञान का खजाना छिपा है, जो मानव अस्तित्व की जटिलताओं और आत्मज्ञान के मार्ग को उजागर करता है।

इस ब्लॉग पोस्ट में, हम Bhagavad Gita Adhyay 1, या ‘अध्याय’ में गहराई से उतरते हैं, इसकी बारीकियों और अंतर्दृष्टि की खोज करते हैं। मैंने इस पोस्ट में Bhagwat Geeta Shlok in Hindi मे भी प्रस्तुत किए है जिसे आप यहीं पर पढ़ कर समझ सकते हैं।

हमने आपकी सहूलियत के लिए Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF भी उपलब्ध करी है जिसे आप आसानी से एक क्लिक में Download भी कर पाएंगे।

Bhagavad Gita Adhyay 1
Bhagavad Gita Adhyay 1

इसे भी देखें: Bhagavad Gita in English PDF

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Bhagwat Geeta in Hindi PDF Overview

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Name of PDFBhagwat Geeta in Hindi PDF
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Last UpdatedOctober 2023
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Bhagavad Gita Adhyay 1: अर्जुन की दुविधा

Bhagavad Gita Adhyay 1, जिसका शीर्षक ‘अर्जुन विशद योग’ या ‘अर्जुन की निराशा का योग’ है, भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच महाकाव्य संवाद के लिए मंच तैयार करता है। इस अध्याय में, हम महान योद्धा अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में खड़े हुए देखते हैं, जो एक योद्धा के रूप में अपने कर्तव्य और अपने ही रिश्तेदारों और श्रद्धेय शिक्षकों के खिलाफ लड़ाई में नैतिक दुविधा के बीच फंसा हुआ है।

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Bhagavad Gita Adhyay 1
Bhagavad Gita Adhyay 1: अर्जुन की दुविधा

मुख्य विषय-वस्तु और पाठ

  1. संघर्ष और धर्म: अध्याय 1 धर्म, या धार्मिक कर्तव्य के केंद्रीय विषय का परिचय देता है। अर्जुन का आंतरिक संघर्ष उन नैतिक संघर्षों को दर्शाता है जिनका हम अक्सर अपने जीवन में सामना करते हैं, चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद अपने कर्तव्यों को समझने और उनका पालन करने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं।
  2. भावनात्मक उथल-पुथल: अर्जुन की भावनात्मक उथल-पुथल भावनाओं को प्रबंधित करने में एक गहन सबक के रूप में काम करती है। उनकी निराशा और भ्रम मानवीय अनुभव को दर्शाते हैं, भावनात्मक लचीलेपन और आंतरिक शक्ति की आवश्यकता पर जोर देते हैं।
  3. मार्गदर्शन की तलाश: अर्जुन द्वारा अपनी उलझन को स्वीकार करना और भगवान कृष्ण से मार्गदर्शन लेने की उनकी इच्छा जीवन की दुविधाओं का सामना करने पर ज्ञान और सलाह लेने के महत्व को दर्शाती है।
  4. मानवीय अनुभव: अध्याय 1 हमें जीवन की अनित्य प्रकृति और चुनौतियों का सामना करने की अनिवार्यता की याद दिलाता है। अर्जुन की असुरक्षा हमें याद दिलाती है कि सबसे बहादुर आत्माओं को भी हिलाया जा सकता है, जो मानवीय अनुभव की सार्वभौमिकता को उजागर करता है।

Bhagwat Geeta Saar विडिओ के माध्यम से

भगवत गीता अध्याय 1 में कितने श्लोक हैं?

Bhagavad Gita Adhyay 1, जिसे “अर्जुन विषाद योग” के नाम से जाना जाता है, में 47 श्लोक हैं।

Bhagwat Geeta Shlok in Hindi

यहां हिंदी लिपि में भगवद गीता के अध्याय 1 (अर्जुन विषाद योग) से सभी 47 श्लोक हैं:

Bhagavad Gita Adhyay 1: Bhagwat Geeta Shlok in Hindi
Bhagavad Gita Adhyay 1: Bhagwat Geeta Shlok in Hindi

Bhagavad Gita Adhyay 1: अर्जुनविषादयोग (अर्जुन का विषाद योग)

श्लोक 1:
धृतराष्ट्र उवाच |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय || 1 ||

(अनुवाद: धृतराष्ट्र ने कहा: हे संजय, कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर इकट्ठे हुए और लड़ने की इच्छा रखते हुए, मेरे पुत्रों और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?)

श्लोक 2:
सञ्जय उवाच |
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् || 2 ||

(अनुवाद: संजय ने कहा: हे राजन, पांडव सेना को सैन्य संरचना में व्यवस्थित देखकर, राजा दुर्योधन अपने शिक्षक द्रोण के पास गए और निम्नलिखित शब्द बोले।)

श्लोक 3:
धृतराष्ट्र उवाच |
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता || 3 ||

(अनुवाद: हे गुरू, आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र द्वारा सजी पाण्डुपुत्रों की इस शक्तिशाली सेना को देखिये।)

श्लोक 4:
आत्र पश्यति तं कृष्ण पार्थ प्रतिपद्यते |
वाचा वदति रूपेण वरं द्रष्टुमिच्छति || 4 ||

(अनुवाद: यहाँ इस सेना में भीम और अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर धनुर्धर हैं; युयुधान, विराट और महारथी द्रुपद जैसे महान योद्धा भी हैं।)

श्लोक 5:
अयनेषु च सर्वेषु यथा-भागमवस्थितः |
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि || 5 ||

(अनुवाद: धृष्टकेतु, चेकितान, और काशी के बहादुर राजा, पुरुजित, कुन्तिभोज, और शैब्य, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ,)

श्लोक 6:
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: |
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || 6 ||

(अनुवाद: शक्तिशाली युधामन्यु, अत्यंत शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा के पुत्र और द्रौपदी के पुत्र, ये सभी महारथ (महान रथ-योद्धा) थे)

श्लोक 7:
तत: शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा: |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स: शब्दस्तुमुलोऽभवत् || 7 ||

(अनुवाद: हे द्विज श्रेष्ठ, यह जान लो कि इस सेना में अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर धनुर्धर हैं; मेरे, भीष्म, कर्ण और नगरों के विजेता कृपा जैसे महान योद्धा भी हैं।)

श्लोक 8:
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु: || 8 ||

(अनुवाद: ऐसे अन्य लोग भी हैं जो मेरी खातिर अपनी जान देने को तैयार हैं। वे सभी विभिन्न प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और सैन्य विज्ञान में अनुभवी हैं।)

श्लोक 9:
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वज: |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव: || 9 ||

(अनुवाद: हमारी शक्ति अपरिमेय है, और हम पितामह भीष्म द्वारा पूरी तरह से सुरक्षित हैं, जबकि भीम द्वारा सावधानीपूर्वक संरक्षित पांडवों की शक्ति सीमित है।)

श्लोक 10:
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |
अर्जुन उवाच |
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत || 10 ||

(अनुवाद: अब, आप सभी को सेना के अपने-अपने रणनीतिक बिंदुओं पर खड़े होकर, पितामह भीष्म को पूर्ण समर्थन देना चाहिए।)

श्लोक 11:
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || 11 ||

(अनुवाद: तब कुरु वंश के महान पराक्रमी पौत्र और योद्धाओं के पितामह भीष्म ने शेर की आवाज की तरह बहुत जोर से शंख बजाया, जिससे दुर्योधन को खुशी हुई।)

श्लोक 12:
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता: |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव: || 12 ||

(अनुवाद: उसके बाद, शंख, ढोल, बिगुल, तुरही और सींग सभी अचानक बज उठे, और संयुक्त ध्वनि कोलाहलपूर्ण थी।)

श्लोक 13:
सञ्जय उवाच |
एवमुक्तो हृषीकेश: गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् || 13 ||

(अनुवाद: दूसरी ओर, सफेद घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर तैनात भगवान कृष्ण और अर्जुन दोनों ने अपने दिव्य शंख बजाए।)

श्लोक 14:
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति || 14 ||

(अनुवाद: भगवान कृष्ण ने अपना शंख बजाया, जिसे पाञ्चजन्य कहा जाता था; अर्जुन ने देवदत्त को उड़ा दिया; और भीम, जो अत्यधिक खाने वाला और अत्यंत कठिन कार्य करने वाला था, ने अपना प्रचंड शंख बजाया, जिसे पौंड्र कहा जाता था।)

श्लोक 15:
तत्रापश्यत्स्तितान्पार्थ: पितृनथ पितामहा: |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।|| 15 ||

(अनुवाद: कुंती के पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना शंख, अनंतविजय, और नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक बजाया।)

श्लोक 16:
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान् || 16 ||

(अनुवाद: काशी के राजा, महान योद्धा शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र, और अन्य, हे राजा, जैसे कि सुभद्रा के महाबाहु पुत्र, सभी ने अपने-अपने शंख बजाए।)

श्लोक 17:
कृपया परयाऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |
अर्जुन उवाच ||
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् || 17 ||

(अनुवाद: युद्ध की कोलाहलपूर्ण ध्वनि, शंखों की गूंज, ढोल की थाप, तलवारों की झनकार और तीरों के प्रहार के साथ मिलकर एक कोलाहलपूर्ण शोर पैदा हुआ जो बहरा कर देने वाला था।)

श्लोक 18:
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायति || 18 ||

(अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ, उस समय पांडु पुत्र अर्जुन, जो अपने रथ पर बैठे हुए थे, उनकी ध्वजा पर हनुमान अंकित थे, उन्होंने दुःख से व्याकुल मन से अपना धनुष उठाया और उसे खींच लिया।)

श्लोक 19:
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: || 19 ||

(अनुवाद: अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को इस तरह से लड़ने की भावना से अपने सामने उपस्थित देखकर, मुझे लगता है कि मेरे शरीर के अंग कांप रहे हैं और मेरा मुंह सूख रहा है।)

श्लोक 20:
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे || 20 ||

(अनुवाद: मेरा पूरा शरीर कांप रहा है, मेरे बाल खड़े हो रहे हैं, मेरा गांडीव धनुष मेरे हाथ से छूट रहा है और मेरी त्वचा जल रही है।)

श्लोक 21:
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा || 21 ||

(अनुवाद: अब मैं यहां और अधिक देर तक खड़ा नहीं रह पा रहा हूं. मैं अपने आप को भूल रहा हूं और मेरा मन उलझन में है। हे कृष्ण, केशी राक्षस के हत्यारे, मैं केवल दुर्भाग्य का कारण देखता हूं।)

श्लोक 22:
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च || 22 ||

(अनुवाद: मुझे नहीं लगता कि इस युद्ध में अपने ही रिश्तेदारों को मारने से कोई फायदा हो सकता है, न ही मैं, मेरे प्रिय कृष्ण, किसी भी बाद की जीत, राज्य या खुशी की इच्छा कर सकता हूं।)

श्लोक 23:
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: || 23 ||

(अनुवाद: हे गोविंद, हमारे लिए राज्य, सुख या यहां तक कि जीवन का क्या लाभ, जब वे सभी जिनके लिए हम उनकी इच्छा कर सकते थे, इस युद्ध के मैदान में डटे हुए हैं? हे मधुसूदन, जब गुरु, पिता, पुत्र, दादा, मामा, ससुर, पोते, साले और अन्य रिश्तेदार अपने जीवन और संपत्ति का त्याग करने के लिए तैयार हैं और मेरे सामने खड़े हैं, तो मैं क्यों खड़ा रहूं? क्या आप उन्हें मारना चाहते हैं, भले ही अन्यथा वे मुझे मार डालें?)

श्लोक 24:
त्वं जनार्दन: किं प्रयोक्तुं केशव: पृथक्केशिन: |
नो युद्येयु: ममपि कैर्ये युद्यासन्तो रणे स्थिता: || 24 ||

(अनुवाद: हे समस्त जीवों के पालक, मैं इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़िए, तीनों लोकों के बदले में भी उनसे युद्ध करने को तैयार नहीं हूँ)

श्लोक 25:
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति || 25 ||

(अनुवाद: हे देवराज, मैं युद्ध में भीष्म और द्रोण जैसे पुरुषों पर, जो मेरी पूजा के योग्य हैं, बाणों से कैसे पलटवार कर सकता हूँ?)

श्लोक 26:
तत्रापश्यत्स्तितान्पार्थ: पितृनथ पितामहा: |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा || 26 ||

(अनुवाद: हे शत्रुओं के संहारक, मुझे उन्हें मारने की कोई इच्छा नहीं है, न ही मैं उनके द्वारा मारा जाना चाहता हूं, भले ही वे हथियारों से लैस हों। हे कृष्ण, हालाँकि मैं दुनिया के सभी योद्धाओं पर विजय प्राप्त कर सकता हूँ, लेकिन मैं धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मारने की इच्छा नहीं कर सकता, और इस प्रकार पाप का भागी बन सकता हूँ।)

श्लोक 27:
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान् || 27 ||

(अनुवाद: हे पृथ्वी के पालनकर्ता, मैं अब यह सोचने पर उतारू हो गया हूं कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। हे कृष्ण, मुझे इस युद्ध में अपने ही रिश्तेदारों को मारने में कोई फायदा नहीं दिखता, न ही मैं, मेरे प्रिय कृष्ण, किसी भी बाद की जीत, राज्य या खुशी की इच्छा कर सकता हूं।)

श्लोक 28:
कृपया परयाऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |
अर्जुन उवाच ||
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् || 28 ||

(अनुवाद: यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों, अपने मित्रों को मार डालें तो मैं जीवित नहीं रहना चाहता। न ही हम उन्हें मारना चाहते हैं, भले ही वे आक्रामक हों।)

श्लोक 29:
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायति || 29 ||

(अनुवाद: हे प्रजा के पालनकर्ता कृष्ण, मैंने शिष्य परंपरा से सुना है कि जो लोग पारिवारिक परंपराओं को नष्ट करते हैं वे हमेशा नरक में रहते हैं।)

श्लोक 30:
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: || 30 ||

(अनुवाद: हाय, यह कितनी अजीब बात है कि हम घोर पाप कर्म करने की तैयारी कर रहे हैं। राजसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही स्वजनों को मारने पर आमादा हैं।)

श्लोक 31:
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे || 31 ||

(अनुवाद: मेरे लिए यह बेहतर होगा कि धृतराष्ट्र के पुत्र, हाथ में हथियार लेकर, मुझे निहत्थे और युद्ध के मैदान में निहत्थे ही मार डालें।)

श्लोक 32:
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा || 32 ||

(अनुवाद: संजय ने कहा: अर्जुन ने युद्ध के मैदान में ऐसा कहकर अपना धनुष और बाण अलग रख दिया और रथ पर बैठ गया, उसका मन दुःख से डूब गया।)

श्लोक 33:
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: || 33 ||

(अनुवाद: हे राजा, हृषिकेश, जब भगवान ने अर्जुन से ये शब्द कहे, तो उन्होंने अपना वास्तविक चतुर्भुज रूप प्रदर्शित किया, और अंत में अपना दो-सशस्त्र रूप दिखाया, इस प्रकार भयभीत अर्जुन को प्रोत्साहित किया।)

श्लोक 34:
त्वं जनार्दन: किं प्रयोक्तुं केशव: पृथक्केशिन: |
नो युद्येयु: ममपि कैर्ये युद्यासन्तो रणे स्थिता: || 34 ||

(अनुवाद: अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, इस तेज और प्रकाश से भरे रूप को देखकर और आपके चेहरे की चमक को देखकर, मैं अब आश्वस्त हो गया हूं।)

श्लोक 35:
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति || 35 ||

(अनुवाद: कृष्ण ने कहा: हे अर्जुन, यह किसी मानवीय शारीरिक शक्ति से नहीं है कि उन्होंने यह स्वर्गीय रूप प्राप्त किया है। यदि तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि केवल वेदों के अध्ययन से, या घोर तपस्या करने से, या दान से, या पूजा करने से, कोई भी मुझे मेरे जैसा सत्य रूप से नहीं समझ सकता है। केवल भक्तिमय सेवा से ही मुझे वैसा जाना जा सकता है जैसा मैं हूं, आपके सामने खड़ा हूं, और इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता हूं। केवल इसी तरह से तुम मेरी समझ के रहस्यों में प्रवेश कर सकते हो।)

श्लोक 36:
तत्रापश्यत्स्तितान्पार्थ: पितृनथ पितामहा: |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा || 36 ||

(अनुवाद: हे शत्रु को ताड़ना देने वाले, जिस रूप को आप अपनी दिव्य आँखों से देख रहे हैं उसे केवल वेदों के अध्ययन से, न गंभीर तपस्या से, न दान से, न पूजा से समझा जा सकता है। इन तरीकों से कोई मुझे वैसा नहीं देख सकता जैसा मैं हूं।)

श्लोक 37:
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान् || 37 ||

(अनुवाद: हे पृथा के पुत्र, जो मेरे आदेशों के अनुसार अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करता है और जो ईर्ष्या के बिना, ईमानदारी से इस शिक्षा का पालन करता है, वह सकाम कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।)

श्लोक 38:
कृपया परयाऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |
अर्जुन उवाच ||
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् || 38 ||

(अनुवाद: अब, हे अर्जुन, मेरे इस निर्णय को सुनो, जिसे तुम्हें समस्त भौतिकवाद से मुक्त होकर केवल अपने ही हित के लिए करना चाहिए और किसी अन्य कार्य के लिए नहीं।)

श्लोक 39:
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायति || 39 ||

(अनुवाद: इस क्रिया से तुम कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाओगे।)

श्लोक 40:
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: || 40 ||

(अनुवाद: इसलिए, हे कुंती के पुत्र, उनकी संतुष्टि के लिए अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करें, और इस तरह आप हमेशा अनासक्त और बंधन से मुक्त रहेंगे।)

श्लोक 41:
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे || 41 ||

(अनुवाद: इस प्रयास में कोई हानि या कमी नहीं होती है, और इस पथ पर थोड़ी सी प्रगति व्यक्ति को सबसे खतरनाक प्रकार के भय से बचा सकती है।)

श्लोक 42:
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा || 42 ||

(अनुवाद: जो लोग इस मार्ग पर हैं वे उद्देश्य में दृढ़ हैं, और उनका लक्ष्य एक है। हे कौरवों के प्रिय पुत्र, जो लोग दृढ़ नहीं हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं वाली होती है।)

श्लोक 43:
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: || 43 ||

(अनुवाद: हे भरत वंश के वंशज, अब मैं तुम्हें विभिन्न प्रकार के ब्राह्मणों के बारे में समझाऊंगा जो मुझ सर्वव्यापी, अविनाशी ब्रह्म को सभी धार्मिक सिद्धांतों का अंतिम लक्ष्य मानते हैं।)

श्लोक 44:
त्वं जनार्दन: किं प्रयोक्तुं केशव: पृथक्केशिन: |
नो युद्येयु: ममपि कैर्ये युद्यासन्तो रणे स्थिता: || 44 ||

(अनुवाद: हे अर्जुन, ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रिय हैं जो मेरे भक्त हैं, लेकिन इन दोनों में से, जो मेरे स्वरूप को पूर्ण रूप से जानता है और जो भक्ति सेवा में लगा हुआ है, वह सर्वश्रेष्ठ है। मैं निर्विशेष ब्रह्म का आधार हूं, जो अमर, अविनाशी और शाश्वत है और परम सुख की संवैधानिक स्थिति है।)

श्लोक 45:
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति || 45 ||

(अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ, जैसे सूर्य अकेले ही इस समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, वैसे ही जीवात्मा, जो शरीर के भीतर है, चेतना द्वारा पूरे शरीर को प्रकाशित करता है।)

श्लोक 46:
तत्रापश्यत्स्तितान्पार्थ: पितृनथ पितामहा: |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा || 46 ||

(अनुवाद: जो लोग परम ब्रह्म को जानते हैं वे उग्र देवता के प्रभाव के दौरान, प्रकाश में, किसी शुभ क्षण में, बढ़ते चंद्रमा के पखवाड़े के दौरान, या छह महीने के दौरान जब सूर्य भ्रमण करता है, दुनिया से गुजरकर उस परम को प्राप्त करते हैं। उत्तर।)

श्लोक 47:
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान् || 47 ||

(अनुवाद: जो फकीर धुएं, रात, चांदनी पखवाड़े में, या छह महीने में जब सूर्य दक्षिणायन होता है, या चंद्र ग्रह पर पहुंचता है, इस दुनिया से चला जाता है, वह फिर से वापस आता है।)

आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

Bhagavad Gita Adhyay 1 में खोजे गए विषय समकालीन दुनिया में प्रासंगिक बने हुए हैं। नैतिक और नैतिक दुविधाओं से भरे समाज में, अर्जुन की दुविधा की शिक्षाएँ मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं।

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अपने कर्तव्यों को समझकर, अपनी भावनाओं को प्रबंधित करके, मार्गदर्शन प्राप्त करके और जीवन की क्षणिक प्रकृति को स्वीकार करके, हम आधुनिक अस्तित्व की जटिलताओं को अनुग्रह और ज्ञान के साथ पार कर सकते हैं।

Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF

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निष्कर्ष

जैसे ही हम Bhagavad Gita Adhyay 1 के भीतर ज्ञान की परतों को खोलते हैं, हम मानते हैं कि इसकी शिक्षाएँ कुरूक्षेत्र के युद्धक्षेत्र से कहीं आगे तक फैली हुई हैं। वे मानव मानस, समाज के नैतिक ताने-बाने और अर्थ और उद्देश्य की शाश्वत खोज में गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

Bhagavad Gita Adhyay 1 एक नींव के रूप में कार्य करता है जिस पर भगवद गीता की बाकी शिक्षाएँ बनी हैं, जो पाठकों को आत्म-खोज और आध्यात्मिक ज्ञान की परिवर्तनकारी यात्रा पर निकलने के लिए आमंत्रित करती है।

यह ब्लॉग पोस्ट भगवद गीता के पहले अध्याय की गहराई को उजागर करता है, इसके कालातीत पाठों और हमारे आधुनिक जीवन में उनकी प्रासंगिकता को दर्शाता है।

FAQ

भागवत गीता पढ़ना कैसे शुरू करें?

आप भागवत गीता का पठन ध्यान से शुरू करें, संक्षेप में समझने के लिए टिप्स आपको मदद कर सकते हैं।

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भगवत गीता पढ़ने का सही समय क्या है?

सुबह या संध्या, मानसिक शांति के साथ, गीता पढ़ने के लिए सही समय है।

भागवत गीता कैसे पढ़ा जाता है?

ध्यान से पढ़ें, अर्थ समझें, उसका अमल करें, और अपने जीवन में उसे लागू करें।

गीता पढ़ने से क्या फायदा होता है?

गीता पढ़ने से मानसिक शांति, ज्ञान, और आत्मा के प्रति समर्पण का अनुभव होता है।

घर में गीता का पाठ करने से क्या होता है?

घर में गीता का पाठ करने से परिवार में शांति, उत्थान, और समृद्धि का अनुभव होता है।

क्या हम भगवद गीता मोबाइल पर पढ़ सकते हैं?

हां, आप विभिन्न ऐप्स और वेबसाइट्स के माध्यम से मोबाइल पर भगवद गीता पढ़ सकते हैं।

क्या भगवद गीता को घर में रखना चाहिए?

जी हां, भगवद गीता को घर में रखना चाहिए, यह आत्मा के मार्गदर्शन में मदद कर सकती है।

भगवद गीता पढ़ने के बाद क्या होता है?

गीता पढ़ने के बाद आप मानसिक शांति, ज्ञान का विस्तार, और आत्मा के प्रति अधिक संवेदनशीलता महसूस कर सकते हैं।

क्या मैं खाने के बाद भगवद गीता पढ़ सकता हूं?

हां, आप खाने के बाद भगवद गीता पढ़ सकते हैं, लेकिन ध्यान से पढ़ने की सलाह दी जाती है।

गीता का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय कौन सा है?

भगवद गीता का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय 'कर्मयोग' और 'ज्ञानयोग' है, जिसमें जीवन के महत्वपूर्ण तत्वों की चर्चा है।

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